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सिटीजन रिपोर्टर
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औरंगाबाद जिले के सदर प्रखंड स्थित औरंगाबाद के जनेश्वर विकास केंद्र एवं जन विकास परिषद द्वारा प्रस्तावित भारत माता के अमर सपूत राजा नारायण सिंह के प्रतिमा स्थापित करने हेतु औरंगाबाद रमेश चौक पर उनकी भव्य, आकर्षक प्रतिमा पहुंचने पर सैकड़ों जिला वासियों ने हर्षाभिभूत होकर स्वागत किया।
प्रतिमा आने पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए संस्था के केंद्रीय सचिव सिद्धेश्वर विद्यार्थी ने कहा कि राजा नारायण सिंह ने 1857 गदर के पूर्व अंग्रेजों के प्रबल शत्रु थे। उन्होंने अंग्रेजी हुकुमत का विरोध करते हुए हजारों अंग्रेजों को मौत के घाट उतारने का काम किया था।ऐसे युगपुरुष भारत के महान स्वतंत्र सेनानी के प्रतिमा स्थापित करने हेतु जनेश्वर विकास केंद्र लगातार 31 वर्षों से संघर्ष करते आ रही थी और 2017 से ही यह प्रतिमा जयपुर में बनकर तैयार थी।
गूगल और इतिहास के पन्नों ने राजा नारायण सिंह जी को वो सम्मान नहीं दिया है जिनके वो हकदार थे। 1857 की क्रांति से भी वर्षों पहले अंग्रेजों को धूल चटाने वाले वो एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्हें इतिहास में अंग्रेजों का पहला दुश्मन कहा गया था।
राजा ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का ऐलान स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे से करीब 90 पहले ही कर दिया था और ऐसा माना जाता है कि उनके पूर्वज पृथ्वी राज चौहान के वंशज थे।
हालांकि उनका जन्म वर्ष सत्यापित नहीं किया जा सका है, लेकिन उनका जन्म 1746 में होने का अनुमान है।
राजा नारायण सिंह ने 1770 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। उन्होंने 1782 तक विद्रोह का झंडा बुलंद रखा।
जब 1764 में, ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने दिल्ली के शाह आलम, बिहार-बंगाल के नवाब मीर कासिम और अवध के नवाब सजौदल्लाह की संयुक्त सेनाओं को हराया था तब राजा नारायण सिंह एक शक्तिशाली जमींदार थे। इतिहासकार केके दत्त का कहना है कि उनके चाचा राजा विष्णु सिंह भी एक देशभक्त थे जिन्होंने प्लासी की 1757 की लड़ाई में नवाब सिराजुदल्लाह की मदद की थी।
राजा की आठवीं पीढ़ी के वंशज एडवोकेट नृपेंद्र सिंह कहते हैं, "भारत के स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में राजा नारायण सिंह का नाम सबसे पहले आता है।" वह चाहते हैं कि राजा नारायण सिंह को "अंग्रेजों का पहला दुश्मन" नाम दिया जाए। इतिहासकार प्रोफेसर तारकेश्वर प्रसाद सिंह का मानना है कि इतिहास ने राजा के साथ न्याय नहीं किया है।
इतिहास में बहुत स्पष्ट है कि राजा कभी भी अंग्रेजों के सामने नहीं झुके थे। अगर वो चाहते तो वह अन्य जमींदारों की तरह अंग्रेजों के प्रति वफादार रह सकते थे लेकिन उसने मालगुजरी कर का भुगतान करने से इनकार कर दिया। बता दें कि मालगुजारी कर के नाम कंपनी जमींदारों के जरिये किसानों और अन्य आम लोगों का शोषण किया करती थी।
1764 में जब उनके चाचा विष्णु सिंह राजा थे, तब ब्रिटिश सहानुभूति रखने वाले नायब मेहंदी हुसैन को राजा नारायण सिंह ने औरंगाबाद के दुर्ग कचरी से बाहर कर दिया था। इससे प्रभावित होकर राजा विष्णु सिंह ने पद त्याग कर दिया और नारायण सिंह को राजा घोषित कर दिया।
1770 में जब यह क्षेत्र अकाल की चपेट में था, तब उन्होंने अंग्रेजों कर का भुगतान करने से इनकार कर दिया। उन्होंने लोगों को सूखे से निपटने में मदद करने के लिए अपनी संपत्ति भी बांट दी।
अंग्रेजों ने जवाबी कार्रवाई में उनके पवई दुर्ग महल को 1778 में नष्ट कर दिया। राजा नारायण सिंह एक कच्चे घर में रहने लगे। अंग्रेज़ों ने सोचा कि ऐसा करने से वो झुक जाएंगे। उन्होंने टैक्स कलेक्टर शाहमल हो राजा से कर वसूलने भेजा लेकिन अंग्रेजों की यह निहायत ही बेवकूफी थी। राजा ने शाहमल को बुरी तरह पीटा और वापिस भेज दिया।
शाहबाद जिला (अब रोहतास, कैमूर, बक्सर और भोजपुर) के तत्कालीन कलेक्टर रेजिनाल्ड हैंड ने अपनी 1781 की पुस्तक 'अर्ली इंग्लिश एडमिनिस्ट्रेशन' में 'शक्तिशाली जमीदार' अध्याय में पुस्तक के पृष्ठ 84 पर राजा को अंग्रेजों का पहला दुश्मन बताया है।
राजा नारायण सिंह ने 1770 से 1781 तक अंग्रेजों को आमने सामने की सभी लड़ाइयों में बुरी तरह हराया था। उन्होंने अंग्रेजों को पचवन में हराया और 5 मार्च, 1778 को वाराणसी में प्रवेश करने से रोक दिया। 1781 में, उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ रामनगर (वाराणसी) के राजा चैत सिंह को भी समर्थन का पेशकश किया।
राजा का विद्रोह 1781 में खुलकर सामने आया जब कंपनी के मेजर जेम्स क्रॉफर्ड ने उस वर्ष अगस्त में चित्रा से बक्सर में मेजर मूसा के नेतृत्व में सेना से मिलने के लिए मार्च किया।शेरघाटी पहुंचने पर, मेजर क्रॉफर्ड को गवर्नर जनरल द्वारा चैत सिंह के सैनिकों को रोकने के लिए बिदजीगुह के आसपास के क्षेत्र में स्थिति लेने का निर्देश दिया गया था। राजा नारायण सिंह को मेजर क्रॉफर्ड को सोन पार करने के लिए नाव उपलब्ध कराने का आदेश दिया गया था। लेकिन राजा ने मना कर दिया। कुछ अभिलेख कहते हैं कि सोन के तट पर एक घमासान युद्ध भी हुआ था।
मेजर क्रॉफर्ड को तब मार्ग बदलने और रोहतास की यात्रा करने के लिए मजबूर किया गया था, जहां राजा नारायण सिंह ने आक्रमणकारी का विरोध करने के लिए हथियार बंद सेना इकट्ठा किया था।
राजा नारायण सिंह ने 15,000 पुरुषों की सेना के साथ मारबन में बेचू सिंह और चैत सिंह के फौजदार में शामिल होकर ब्रिटिश योजनाओं पर फिर से पानी फेर दिया।
अंग्रेजों ने 10 अक्टूबर 1781 को राजा नारायण सिंह के खिलाफ़ कंपनी से विद्रोह करने का मुकदमा चलाया और उन्हें अयोग्य ठहराते हुए 27 मई, 1782 को उनकी जमींदारी छीन ली गयी और गिरफ्तारी का आदेश जारी करने के लिए गवर्नर जनरल और कॉउंसिल को पत्र भेजा गया।
उस आरोप के साबित होने के साथ, राजा नारायण सिंह को सजा सुनाई गई और 5 मार्च, 1786 को राज्य कैदी के रूप में ढाका भेज दिया गया। रिहा होने पर वह पवई दुर्ग लौट आए, लेकिन उनकी वापसी के कुछ दिनों के भीतर ही उनकी मृत्यु हो गई।
पूर्व में 8 सितंबर विश्व साक्षरता दिवस के अवसर पर ही प्रतिमा स्थापित करने का कार्यक्रम था। परंतु 8 सितंबर के पूर्व ही कुछ लोगों द्वारा विघ्न पैदा करने के कारण मूर्ति नहीं आ पाई। यथाशीघ्र प्रतिमा का स्थापना किया जाएगा। आज उस संघर्ष का परिणाम है कि राजा नारायण सिंह का प्रतिमा स्थापित होने जा रही है।
औरंगाबाद जिले के रमेश चौक पर अवस्थित राजा नारायण सिंह पार्क में उनकी प्रतिमा पहुंचने पर लोगों ने हर्ष व्यक्त किया। प्रतिमा पहुंचने पर मूर्ति प्रदाता मनोज सिंह, नगर पार्षद चुलबुल सिंह, महाराणा प्रताप सेवा संस्थान के पूर्व सचिव अनिल कुमार सिंह,बिहार प्रदेश सरपंच संघ के प्रदेश महासचिव रवींद्र कुमार सिंह, समाजसेवी रामजी सिंह, अधिवक्ता संघ के जिलाध्यक्ष संजय कुमार सिंह, गिरिजेश कुमार सिंह, दया पात्र सिंह, विनोद मालाकार,गोपाल राम,शक्ति कुमार सिंह, जसवंत कुमार सिंह, मीडिया प्रभारी सुरेश विद्यार्थी सहित सैकड़ों लोगों ने विशेष सहभागिता निभाई एवं स्वागत किया।
^ इस आर्टिकल का कुछ अंश 15 अगस्त 2017 को India Times में प्रकाशित एक आर्टिकल Here's The Story Of The 'First' Freedom Fighter Raja Narayan Singh Who Fought Against The British Before Mangal Pandey से ली गयी है। Aurangabad Now इसमें दी गयी तथ्यों की सत्यता की पुष्टि नहीं करता है।
Source: India Times