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अगस्त क्रांति: तिरंगे के सम्मान में औरंगाबाद के जगतपति सहित बिहार के सात लाल एक साथ हो गए थे शहीद

पटना सचिवालय के पास आपने बिहार के सात शहीदों की याद में बनायी गयी स्मारक को जाने कितनी ही बार देखा होगा। इन सात शहीदों में से एक बिहार का लाल औरंगाबाद का भी था। आप इनके बारे में कितना जानते हैं?

Aurangabad Now Desk

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औरंगाबाद, Aug 11, 2021 (अपडेटेड Aug 11, 2021 9:50 AM बजे)

आज से 79 साल पहले (8 अगस्त 1942 को), मुम्बई के अगस्त क्रांति मैदान (तत्कालीन ग्वालियर टैंक मैदान) में आयोजित कॉंग्रेस के बम्बई अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन का आगाज़ किया था। इस आंदोलन को अगस्त क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। इतिहासकारों के द्वारा माना जाता है कि इस आन्दोलन में सबसे ज्यादा सक्रिय क्षेत्र बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश ही था।

भारत छोड़ो आंदोलन के एलान के तुरंत बाद ही अंग्रेजों ने कांग्रेस पर बैन लगा दिया और इसके सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा। बिहार में इस आंदोलन का नेतृत्व डॉ. राजेन्द्र प्रसाद कर रहे थे। पटना में 9 अगस्त को तड़के सुबह में ही भारतीय रक्षा अधिनियम के तहत राजेन्द्र बाबू को गिरफ्तार कर लिया गया और तबीयत ख़राब होने के कारण उन्हें बांकीपुर सेंट्रल जेल में भेज दिया गया। इस घटना के बाद पूरे बिहार में सामूहिक जुर्माना अध्यादेश भी लागू कर दिया गया।

अगले दिन 10 अगस्त को श्रीकृष्ण सिंह जी को भी गिरफ्तार करके बांकीपुर जेल में डाल दिया गया। इसी दिन गांधी मैदान (बांकीपुर मैदान) में एक सभा का आयोजन किया गया जिसमें निर्णय लिया गया कि पटना सचिवालय में तिरंगा फहराया जाएगा।


11 अगस्त को पटना सचिवालय में एक ऐसी घटना घटी जिसने पूरे देश में अंग्रेजी सरकार के ख़िलाफ़ उबाल पैदा कर दिया। सचिवालय पर झंडा फहराने की कोशिश में बिहार के सात स्कूली छात्र एक-एक कर ब्रिटिश पुलिस की गोलियों का शिकार हो गये।

अपने झंडे की शान के लिए जान देने वाले इन निहत्थे छात्रों की याद में आज भी पटना सचिवालय के सामने शहीद स्मारक बना है, जहां प्रसिद्ध मूर्तिकार देवी प्रसाद रायचौधरी की इन सात शहीदों की दुर्लभ मूर्ति लगी है।

क्या हुआ था 11 अगस्त को?

11 अगस्त की सुबह को अशोक राजपथ जनसमूह से भरा हुआ था। आंदोलनकारी बांकीपुर के बाद सचिवालय की ओर झंडा फहराने चल निकले। मिलर हाई स्कूल के नौवीं के छात्र 14 वर्षीय देवीपद चौधरी तिरंगा लिए आगे बढ़ रहे थे। देवीपद सिलहट के जमालपुर गांव के रहने वाले थे, जो अब बंग्लादेश में है। अचानक सीने में गोली लगी, वे गिर पड़े। तिरंगे को पुनपुन हाई स्कूल के छात्र रायगोविंद सिंह ने थाम लिया। रायगोविंद पटना के दसरथा गांव के थे। उन्हें भी गोली मार दी गयी। अब तिरंगा राममोहन राय सेमिनरी के छात्र रामानंद सिंह के हाथों में था। रामानंद पटना के ही शहादत नगर गांव के थे। अगली गोली से वे भी वीरगति को प्राप्त हो गये। तब तक तिरंगा को पटना हाई स्कूल गर्दनीबाग के राजेंद्र सिंह लेकर आगे बढ़ने लगे।

राजेंद्र सारण के बनवारी चक गांव के रहने वाले थे। उन्हें भी गोली लगी और भारत माता की जय कहते हुए गिरने तक तिरंगा बीएन कॉलेज के छात्र जगपति कुमार थामकर आगे बढ़े। जगपति ओबरा, औरंगाबाद के खरांटी गांव के रहने वाले थे। लक्ष्य बस कुछ ही कदमों पर था। जगपति तेजी से आगे बढ़े। उन्हें एक साथ तीन गोलियां लगीं। एक गोली हाथ में, दूसरी छाती में और तीसरी जांघ में। जगपति के शहीद होते ही पटना कॉलेजिएट के छात्र सतीश प्रसाद झा ने तिरंगा थाम लिया। सतीश भागलपुर के खडहरा के रहने वाले थे। उन्हें भी गोली मार दी गयी। तिरंगा अब राममोहन राय सेमिनरी के 15 साल के छात्र उमाकांत सिंह के हाथों में था। लक्ष्य सामने था गोली चली, उमाकांत गिर पड़े, लेकिन तिरंगा तब तक सचिवालय पर लहराने लगा था।

बचपन से ही क्रांतिकारी थे शहीद जगपति

जगपति कुमार का जन्म 7 मार्च 1923 को खरांटी में हुआ था। इनके पिता का नाम सुखराज बहादुर तथा माता का नाम सोना देवी था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल हुई। 1932 में उच्च शिक्षा के लिए ये पटना गए। कॉलेजिएट स्कूल से 1938 में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और फिर बीएन कॉलेज में दाखिला लिया। इनके पिता जमींदार थे और अपने तीन भाइयों में ये सबसे छोटे थे।

शहीद जगतपति के घर रहने वाले रामजन्म पांडय बताते हैं कि वह बचपन से ही क्रांतिकारी थे। हमेशा करो या मरो की बात करते थे। वे सुभाष चंद्र बोस के साथ जापान भी गए थे। वहां क्या ट्रेनिंग हुई नहीं पता, लेकिन वहां से पटना आए और अपने दोस्तों के साथ सचिवालय पर झंड़ा फहरान के लिए निकल गए। अंग्रेजों ने पहले ऐसा नहीं करने के लिए सावधान किया, लेकिन वे लोग नहीं माने और आगे बढ़ते गए। इसके बाद अंग्रेजों ने गोली चलवा दी। जगतपति को पहली गोली पैर में लगी तो उन्होंने ललकारते हुए कहा कि पैर में क्यों गोली मार रहे हो। सिने में गोली मारो। रामजन्म पांडेय ने आगे बताया कि उनके पिता सुखराज बहादुर उनकी याद में रोते-रोते अंधे हो गए थे। उन्होंने सरकारी उपेक्षा का आरोप लगाया

शहीद जगपति को आज भी नहीं मिल सका वो सम्मान 

तिरंगे की शान को कायम रखने किये शहीद जगपति ने गोलियों से छलनी होना स्वीकार कर लिया था। आजादी के लड़ाई में उनका जितना योगदान था शायद उसका एक प्रतिशत सम्मान भी हम अब तक नहीं दे पाए हैं। आज की युवा पीढ़ी शायद ही उनका नाम भी सुनी हो। 

औरंगाबाद व खरांटी में बना शहीद जगपति का स्मारक भी उपेक्षा का शिकार है। शहीद दिवस 11 अगस्त को इसे सजाया संवारा जाता है और फिर वर्ष भर इसका कोई देखनहार नहीं होता। खरांटी स्थित इनका पैतृक घर भी खंडहर में तब्दील हो चुका है। इनके परिवार से जुड़े लोग अन्यत्र रहते हैं। घर के चारों ओर घास-फनूस उगे हैं। स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा यह स्थल उपेक्षित और वीरान है। सरकारी स्तर से उनकी याद में कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता है।

Source: Livehindustan

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